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अंततः काफी उठापटक के बाद केजरीवाल जी ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे ही दिया. अब प्रश्न ये उठता है कि ये उनकी जनलोकपाल को लेकर शहादत है, मजबूरी है या बेवकूफी. उनके मुख्यमंत्री के कार्यकाल को देखें तो ये उनकी मजबूरी ही लगती है. क्यूंकि केजरीवाल खुद भी और उनके मंत्री भी अपने अपने कार्यालयों में कम सड़कों और मीडिया पर ज्यादा दिखाई दिए.बेशक वो अपने इस्तीफे के जरिये जनता के बीच ये मेसेज भेजना चाहते थे कि जनलोकपाल के लिए उन्होंने इस्तीफा दिया है लेकिन सच ये है कि अपनी गिरती लोकप्रियता को बचने के लिए उन्हें और कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया.
अगर केजरीवाल जी जनलोकपाल बिल को लेकर इतने ही गम्भीर थे तो क्यूँ नहीं बिल को संवैधानिक रूप से पेश किया. अगर वे बिल को संवैधानिक रूप से पेश करते तो कांग्रेस और बीजेपी को मजबूरन बिल के पक्ष में वोट करना पड़ता वर्ना जनता के बीच ये मेसेज अपने आप ही चला जाता कि बीजेपी और कांग्रेस जनलोकपाल बिल को लेकर गम्भीर नहीं है और उन्हें अपने पद से इस्तीफा नहीं देना पड़ता. उन्होंने धरने व नौटंकी से मुख्यमंत्री पद हासिल तो कर लिया पर अंत में जनता का नेता वही होता है जो अपने कार्यकाल में विकास कार्य करके दिखाए न कि नौटंकी. नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान सरकार आदि का अपने अपने राज्य में दोबारा आना ये बात सही भी साबित करता है.
आज आम आदमी पार्टी को देखकर तो यही लगता है कि सफलता उन्हें हजम नहीं हुई. असल में कम समय में ज्यादा सफलता मिलने से उन्हें अपनी पार्टी की बुनियाद मजबूत करने का वक़्त ही नहीं मिला. आम आदमी पार्टी की सरकार मैं अनुभवहीनता, उतावलापन और अपरिपक्वता ज्यादा दिखाई दी उन्हें जोश के साथ साथ होश और संयम से काम लेना चाहिए था. केजरीवाल जी के भाषण में शायद ही कभी विकास को लेकर कोई विज़न और आईडिया दिखाई दिया हो अलबत्ता वो जल्दबाजी में बहुत दिखाई दिए.
कहीं न कहीं आम आदमी पार्टी अपने लक्ष्य को लेकर भटकी हुई महसूस होती है. लेकिन न जाने क्यूँ बचपन में सुनी एक कहानी याद आ गयी कि एक बन्दर के हाथ में एक उस्तरा आ जाता है तो वो अपना ही गला काट लेता है.
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